Monday, December 20, 2021

उत्पत्ति

समुद्र भी क्षुब्ध था,
ये गगन भी सुप्त था,  
थी धरा भी शांत सी,
और वायु भी तो मौन था.
न तृण कोई था हिल रहा,
न पत्तियों में सरसरी ,
जीव सारे थे शिथिल,
औ' शब्द हर गौण था.

फिर हाहाकार उठ खड़ा
हुआ किधर से क्या पता,
बड़ी मची उथल पुथल,
भयंकर वो शोर था.

भय से था सहम उठा,
मनुज ह्रदय जो क्षीण था, 
अज्ञात का था भय बड़ा, 
औ' वो सामर्थ्यहीन था.

फिर हुयी जो ध्वनि, 
वो गगन को चीर के,
' हे मनुज ये देख ले, 
जो जन्मा, मेरा अंश था'

आदित्य का वो तेज देख,
मनुज यहाँ सिहर उठा. 

वात्सल्य

है तेरा ही वो वात्सल्य,

तेरा ही स्वार्थरहित वो स्नेह

तेरी ममता तेरा ही प्रेम,

जो अक्षत आज भी मेरी देह।  

 

जब भी रोया तेरे हाथों ने  

मेरे चक्षु से आंसू पोछे

जब प्रयत्न किया कभी चलने का,  

पथ के सारे कांटे नोचे।  

 

तेरी छवि मेरे नयनों में,

मेरे सर पे तेरा हाथ रहे

न कभी अकेला पड़ जाऊं,

जीवन भर तेरा साथ रहे।  

 

पर विडम्बना ही जीवन की,

तू एक दिन छोड़ के जाएगी

बस पूछूँ अगले जन्म में भी 

क्या मुझको पुत्र बनाएगी?

Tuesday, February 25, 2020

प्रलय पूर्व

कर लो तुम उत्पात मगर,
पत्थर और तलवार मगर,
चाहे तान लो अपनी बंदूकें,
और वर्दी का भी फोड़ दो सर,

करो प्रदर्शन शक्ति का,
अहंकार में डूब रहो,
संख्या बल का तुम दर्प लिए,
चाहे आज भुजाएं फड़का लो,

पर रहे ध्यान इतना बंधु,
वो ऊपर बैठा देख रहा,
तुमने जो करतूतें की,
लेखा जोखा सब देख रहा,

जब उसका संयम टूटेगा,
प्रलय नेत्र वो खोलेगा,
तब सब मापे जाओगे,
त्राहि त्राहि चिल्लाओगे,

होगा तो रावण याद तुम्हें,
लोकों का राजा, दैत्य विशाल,
अहं कहां कम था उसका,
साहस असीम, था बल अपार

पर जब कुपित हुए कैलाशपति,
अंगुठे तले बस दबा दिया,
सहस्त्र वसंत भी बीत गए,
रावण तिल भर ना हिल पाया,

बस रोया था वो सहस्त्र साल,
इसलिए वो रावण कहलाया, 
गति उसकी जब ऐसी हुई,
तुमने अपना क्या सोच लिया?

मत करो प्रदर्शन शक्ति का,
मत करो प्रलय का आह्वान,
विनय, प्रेम, सौहार्द्र सहित,
जी लो, कर लो इह लोक सुभान।

Monday, April 17, 2017

आह्वान

भाषण अब पर्याप्त नहीं
सैनिक गँवा रहे हैं प्राण
राष्ट्र सेवा के वचन का
हे प्रधान अब दो प्रमाण

पुनः कोई न ऊरी हो
न कारगिल का घमासान
न फिर कुलभूषण बंदी हो
न हनुमंथप्पा हो बलिदान

आदित्य कहे अब प्रण कर लो
चाहे जग का बदले विधान
थप्पड़ के बदले शीष धरो
वार करो अब वज्र समान

कुरूक्षेत्र चुन लो तुम आज
और करो युद्ध का आह्वान,
कर दो समाप्त वो रुग्ण राष्ट्र
या रोग का कर दो निदान

युद्ध अगर हो युद्ध सही
पर बचा रहे अपना सम्मान
राष्ट्र सेवा के वचन का
हे प्रधान अब दो प्रमाण।

Thursday, October 13, 2016

The other side

From Mahatma Gandhi, Nehru, Sardar Patel to Bhagat Singh, Netaji Bose and Dindayal Upadhyay, everybody fought for the same cause, independence of India. After independence, it was Nehru's international experience and knowledge that made him to fight against the rice bowl theory that was almost every other leader's way forward for the independent India. It was Nehru who said that rather than looking at the plate in front of the poor indians and thus making the food as the chosen destiny for them, it is more important to give them the right to choose their destiny.

Without the international exposure of Nehru and his knowledge of the world stature and politics, India couldn't have taken the path of making itself a competent and unbiased democracy. Nehru's knowledge made India avoid the mistakes that many countries made across the world and it was his knowledge and closeness to the world body that set India on a growth path that has been unmatched by any other country. Both Gandhi and Nehru were visionaries and, most of the times, were able to see what India rightly needed at that time.

Thus, it is wrong of the current generation to malign Gandhi and Nehru's names.

Having said that, both of them, Gandhi and Nehru, were mere mortal men, each having his own flaws. No man can be right all the time and same goes for them as well. Their rights can not be considered leaving out their flaws, making them appear as people who could do no wrong. They were ably supported by other great leaders of that time, both in line with them and in opposition to them. India was benefited by both sides of people. However, the current congress, still wants to gain mileage on the name of these stalwarts when they do not have a single leader of a stature that can match even 10% of those great men. A lineage does not make one great, even if the lineage were a god's gift to mankind. Gandhi, Nehru, Indira are not alive today. The current congress needs to prove itself to be relevant and worthy to the people, not to live off of some names from the history.

We are doing great disservice to our country by reading/getting to know about only one side. We are doing great disservice to our country by not opposing the wrongs of the sides but the sides themselves.

Sunday, June 19, 2016

बतहवा

बतहवा - मालिक का मँझला बेटा।नाम तो प्रकाश था, पर वो यही बुलाती थी। बतहिया का बतहवा। बचपन से माँ के पास कम, उसके पास ज़्यादा पला था।
शाम को जब मालिक के घर गयी थी तो घर पर नहीं था। कहीं ट्यूसन पढ़ाने गया हुआ था। भाइयों में एक वही कमाने वाला था। डिग्री मिलने के बाद नौकरी नहीं लगी थी पर ३ भाइयों, एक बहन और बीमार माँ-बाप वाला घर चलना तो था ही। यूँ तो खेत भी थे मालिक के पास लेकिन खेती करने को पूँजी नहीं बची थी।एक समय था जब इस घर के सामने से अंग्रेज़ भी टोपी उतारकर गुज़रा करते थे पर अब वो बात नहीं रही।
मालकिन की बीमारी की वजह से सब चला गया धीरे धीरे।और जो बचा वो कोर्ट के चक्करों में जाता रहा। सीधे को सब सताते हैं। मालिक बहुत सीधे हैं, एकदम सज्जन आदमी।लोगों ने बहुत फ़ायदा उठाया इसका।एक समय की मिल्कियत अब बस कुछ टूटी कोठरियों में सिमट कर रह गयी है। पर है तो मालिक का ही घर।
घर पहुँची तो पुजिया ने ताना मारा-
"आ गयी?भोर हो गया, नहीं?" और हंस कर निकल गयी।
वो ऐसे ही बात करती है।सब मुँह पे बोलती है। अपने में मगन रहती है पर दिल में कुछ रखती नहीं।
और कोई घर में नहीं दिखा। छोटे दोनो लड़के बाहर दालान में लालटेन की रोशनी में पढ़ने बैठ गए थे।पुजिया किसी पड़ोसी के यहाँ जाकर भाभियों के साथ चुहल कर रही होगी।
बतहिया मुस्कुरा कर रसोईघर में घुस गयी।देखा तो बर्तन वैसे ही पड़े थे दिन के। वो उठाकर माँजने बैठ गयी।
आज कई दिनों के बाद वो मालिक के घर आयी थी। थोड़े पैसों की ज़रूरत आन पड़ी थी। आज तक मालिक के घर के अलावा किसी से कुछ माँगा नहीं उसने।मालिक के घर मिलेगा तो ठीक, नहीं तो मन मार लेगी।किसी दूसरे के यहाँ माँग कर मालिक को शर्मिंदा नहीं कर सकती थी वो।
सब काम ख़त्म हो गए। मालकिन सोयी हुयी थी, मालिक बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे। बतहिया उनके पास पहुँची।
"भैया, कुछ काम था।"
मालिक ने चौंक कर देखा। "हाँ, बोलो"
वो बोल नहीं पा रही थी। घर की स्थिति उससे छुपी तो नहीं थी। कैसे माँगे?
"क्या बात है?" मालिक ने फिर पूछा।
हिम्मत जुटायी उसने "वो भैया, परसों बेटी की विदायी है। साथ में कुछ संदेश भेजना पडेग़ा।इसलिए आयी थी।कुछ पैसे होते तो......." बात आधी ही छोड़ दी उसने।
मालिक का मुँह गम्भीर हो गया "तुम्हारा बतहवा आया नहीं है अभी तक।"
वो समझ गयी।घर में पैसे नहीं हैं।
"तेल गरम कर दूँ मालिश के लिए?" उसने मालिक से पूछा। मालिक का गम्भीर मुँह देखा नहीं जा रहा था।
"नहीं, रहने दो।मैं थोड़ा टहल लेता हूँ।" कहकर मालिक उठ गए।इतनी पुरानी नौकरानी को माँगा हुआ ना दे पाने का दर्द वो उसे देखने नहीं देना चाहते थे।
वो फिर चुपचाप बरामदे पर जाकर बैठ गयी। थोड़ी देर बैठी रही।तभी देखा बुधना को हिलते डुलते आँगन में घुसते।सीधा उसके पास आया।
"दीदिया बुला रही है।" बुधना यही संदेश देने आया था।
उसने इधर उधर देखा, कोई नहीं था। गहरी साँस भरकर उठ गयी।
"चल।" उसने बुधना से कहा।बुधना भाग लिया। वो धीमे धीमे चल दी। आँगन से बाहर निकलकर सड़क पर नज़र दौड़ाई।बाज़ार से आने वाली सड़क पर कुछ नज़र नहीं आया।उसने सुनने की कोशिश की। कहीं से कोई साइकिल की आवाज़ सुनाई पड़ जाए। बतहवा के आने की उम्मीद कर रही थी। कोई आवाज़ ना पाकर फिर घर की तरफ़ मुड़ गयी।

"क्या हुआ? क्यूँ बुलावा भेजा?" घर पहुँचते ही बेटी से पूछा।
"परसों चली जाऊँगी।थोड़ा समय मेरे साथ भी तो गुज़र लो।" उसने मुँह बनाकर कहा।
"अरे तेरे जाने का ही इंतज़ाम करने गयी थी।" बोलकर बेटी के पास बैठ गयी।
बेटी की बातें शुरू हो गयी। कल जमाई जी आने वाले हैं। क्या क्या करना है, क्या क्या ले जा रही और भी बहुत कुछ। वो चुपचाप सुनती रही, मुस्कुराती रही। मन  की उलझन खिलती बेटी के सामने नहीं रखना चाहती थी। कल सुबह अंधेरे उठकर फिर से जाएगी मालिक के पास। बतहवा खेत के लिए निकल जाए उसके पहले।

यही सब सोच रही थी कि बाहर से आवाज़ आयी।कोई उसे ही पुकार रहा था। आवाज़ सुनकर मन में उम्मीद जागी।बतहवा पुकार रहा था। पैर में पहिए लग गए।जल्दी से बाहर निकली।
"बाबा बता रहे थे तुम घर पे आयी थी।" बतहवा ने देखते ही बोला।
"बैठो तो पहले।" उसने मोढ़ी आगे कर दी थी।
"क्या हुआ, कुछ काम था?बाबा ने आगे कुछ बताया नहीं।" बतहवा ने बैठते-बैठते पूछा।
मालिक संकोच में थे अभी तक।
वो ख़ुद संकोच में थी। "वो बेटी की विदायी है परसों, कल जमाई आ रहे हैं। हाथ थोड़ा तंग था।"
"अरे तो पहले बताती ना।मैं बाज़ार से लेता आता।"
"नहीं वो बाज़ार वाला तो सब हो गया।बेटी-जमाई के हाथ में कुछ नगद भी तो देना रहेगा।" बोलते बोलते वो दूसरी ओर देखने लगी। उसे पता है बतहवा दिन-रात मेहनत करता है घर चलाने में, लेकिन ट्यूसन में हो ही कितना पाता होगा।
"कितने में हो जाएगा?" बतहवा ने पूछा।उसकी आवाज़ में लगाव था।
"५० तक में हो जाता।" उसने धीरे से कहा।
बतहवा ने जेब में हाथ डाला।कुछ नोट निकाले। गिनकर ५० उसकी तरफ़ बढ़ा दिए।
उसने बतहवा का मुँह देखा।
"५० हैं, रख लो। और चाहिए तो बता देना।" उसने देते हुए कहा।
"नहीं, बहुत हैं।" उसने काँपते हाथों से पैसे ले लिए।
बतहवा उठ खड़ा हुआ।
"चाय पियोगे?" उसने पूछा।
"नहीं,  बाबा की मालिश करके खाना खाऊँगा।"
तब तक बेटी दरवाज़े पर आ गयी थी।
"ससुराल जाकर गाँव का मज़ाक़ मत उड़वाना ।" बतहवा ने बेटी से चुहल की।
बेटी मुस्कुराकर फिर अंदर भाग गयी।

बतहवा बाहर निकल गया। अब जेब में ज़्यादा नहीं बचे थे। कोई बात नहीं।एक सप्ताह बाहर चाय नहीं पिएगा और शाम का नाश्ता नहीं भी किया कुछ दिन तो क्या होता है। दोनो समय खाना तो अच्छे से खाता ही है।अंधेरे में दालान में बैठे भाइयों की लालटेन की तरफ़ पैर बढ़ गए उसके।


Friday, June 17, 2016

परीक्षा

आज के अख़बार को वो ३ बार इस पार से उस पार तक पढ़ चुका था।
घड़ी की तरफ़ देखा तो अभी ११:३० ही हुए थे। अभी भी आधा घंटा बचा हुआ था।
सुबह ५ बजे नींद खुल गयी थी उसकी।वैसे तो रोज़ जल्दी उठने की आदत है उसे पर आज उससे भी जल्दी उठ गया था। बड़ा बेटा पास में सो रहा था। उसे धीरे से आवाज़ दी "बेटा, उठ जाओ। सुबह हो गयी। एक बार पूरा दोहराना नहीं है?"
बेटा दूसरी तरफ़ मुँह घुमा कर सो गया। उसे ख़ुद को हँसी आ गयी।बेटे को सुबह उठना पसंद नहीं है।ख़ुद उठकर मुँह धोने कमरे से बाहर निकल गया। नहा धोकर और बाक़ी दैनिक कर्मों से निवृत होकर जब आधे घंटे बाद लौटा तो बेटा अब भी सो रहा था। बेटे की आज से बोर्ड परीक्षा शुरू हो रही है। कल शाम ही सामान लेकर बनमनखी पहुँचे थे दोनो बाप बेटे। यहाँ पत्नी के एक रिश्तेदार रहते हैं।उन्ही के किन्ही मित्र का मकान ख़ाली पड़ा था, जिसमें दोनो बाप बेटे की रहने की व्यवस्था हो गयी थी।
इस बार थोड़े ज़ोर से उठाया बेटे को - "बाबू, उठ जाओ बेटा।अब ज़्यादा समय नहीं है। एक बार देख तो लो।"
बेटा उठ बैठा था।एक बार पिता को देख के मुसकाया और मुँह धोने बाहर निकल गया।
बाप बस्ता खोलकर बैठ गया। पहले तो बेटे की किताबें बाहर निकल कर रख दीं कि बेटा जब मुँह धो कर लौटे तो किताब निकालने में समय व्यर्थ ना हो। बच्चों की पढ़ायी उसके लिए सर्वोपरि थी हमेशा से। वो नहीं चाहता था की बेटे की पढ़ायी में थोड़ा भी व्यवधान हो।
फिर उसने बक्से से पत्नी के दिए हुए नाश्ते की पोटरियाँ निकालनी शुरू कीं। जब तक बेटा निवृत हो कर आया, उसका नाश्ता और किताबें दोनो तैयार कर दी थीं उसने।बेटा सीधा किताबें लेकर बैठ गया।
"पहले नाश्ता तो कर लो" उसने झूठ मूठ डाँटते हुए कहा।
बेटे ने एक बार नाश्ते के कटोरे की तरफ़, फिर किताब की तरफ़, फिर कटोरे की तरफ़ और फिर उसकी तरफ़ ऐसे देखा जैसे बोल रहा हो की आप ही बताओ क्या करूँ?
"अच्छा ठीक है, तुम पढ़ो, मैं खिला देता हूँ।"
बेटे ने मुस्कुराकर स्वीकृति दे दी।
वो बेटे को खिलाता रहा और बेटा उसे पढ़ाता रहा। वो ऐसे ही दुहराता है। पिता के सामने बोल बोलकर,ताकि अगर कोई त्रुटि हो तो पिता सही कर दे।अपने शिक्षक होने का ये फ़ायदा हुआ था उसे,पता था कि बच्चे क्या पढ़ रहे हैं और देख सकता था कि कहीं गलती तो नहीं कर रहे।
८ बज गए थे जब बेटे ने किताब बंद की।उसने तब तक उसके कपड़े वग़ैरह निकाल कर रख दिए थे।बेटा कपड़े लेकर नहाने दौड़ पड़ा।
रिश्तेदार के यहाँ से भोजन का निमंत्रण आ गया था। बेटे के साथ उनके यहाँ भोजन कर सीधा परीक्षा केंद्र पहुँचा। वहाँ विद्यार्थियों का हुजूम इकट्ठा था। बेटा दौड़ कर अपने दोस्तों में शामिल हो गया। वो वहीं खड़ा देखता रह गया। थोड़ी देर बाद बेटे ने पलटकर देखा तो वो वहीं खड़ा था। बेटा वापस आया।घंटी बज गयी थी। बेटे ने पैर छुए।
"अच्छे से लिखना, कुछ छोड़ना मत।" कहकर बेटे को भेज दिया।
तब से वो यहीं बैठा हुआ था, इस चायवाले की दुकान पर। १२ बजे परीक्षा ख़त्म होनी थी। उसने फिर घड़ी देखी, ११:४० हुए थे। चाय वाले को बोलकर १ किलो रसगुल्ले और १५ समोसे पैक करवा लिए उसने।वहाँ जाएगा तो बेटा अकेला नहीं होगा, दोस्त साथ होंगे उसके।इतना लेकर नहीं जाएगा तो बेटे की धाक काम हो जाएगी दोस्तों में।कहीं ये उसका मन विचलित ना कर दे।अगली परीक्षा २ बजे से है।वो ये जोखिम नहीं ले सकता था। अभी ५ दिन और हैं और हर दिन ये करना होगा उसे। पैसे तो ख़र्च होंगे,पर बच्चे का अभिमान बना रहे, इसके लिए इतने ख़र्च कर देगा वो।
केंद्र पास में ही था।जब पहुँचा तभी घंटी बजी। उसने दूर से देखा, बेटा दौड़ता हुआ परीक्षा कक्ष से निकल रहा था।दौड़ते दौड़ते उसने इधर उधर अपने पिता को ढूँढा और जब पिता पर नज़र पड़ी तो सीधा उसकी तरफ़ दौड़ पड़ा।
"कैसी रही परीक्षा?" उसने पूछा।
"बहुत बढ़िया" बेटा मुस्कुरा रहा था। आज तक कभी परीक्षा ख़राब गयी हो ऐसा हुआ नहीं था। अपनी क्लास का टॉपर था उसका बेटा।
"सब लिखे?"
"हाँ। मैं तो कब से लिख कर बैठा था।ये लोग निकलने ही नहीं दे रहे थे।" बेटे ने अधीर होकर कहा।
वो थोड़ा गंभीर हो गया।
"कहीं जल्दबाज़ी में कुछ छोड़ तो नहीं दिया ना? बहुत करते हो तुम ऐसा।ये बोर्ड परीक्षा है, यहाँ जल्दबाज़ी मत करो।" उसने समझाया।बहुत बार समझाया था उसने बेटे को। चंचल बेटा हर बार इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देता था।
बेटे ने मुँह बनाकर उसकी ओर देखा।
"अच्छा ठीक है।और कोई दोस्त है तो बुला लो।समोसे रसगुल्ले लाया हूँ।"
बेटा खिल पड़ा था। दौड़कर ४ दोस्तों को बुला लाया। समोसे रसगुल्ले ख़त्म होते होते फिर घंटी बज पड़ी थी। बेटे को पानी पिलाकर उसने वापस रणभूमि में छोड़ दिया।
फिर दो घंटे बिताने हैं।अब वो अख़बार तो फिर से नहीं पढ़ सकता।कुछ सोचकर जहाँ बाप बेटे रुके हुए थे, वहाँ चला गया।मीठा खाने के बाद थोड़ी नींद सी आने लगी थी।जाकर लेट गया।
जब नींद खुली तो ३:३० बज गए थे। हड़बड़ाकर उठा। मुँह धोकर परीक्षा केंद्र की तरफ़ भागा। घंटी बजने के बस कुछ ही क्षण पहले पहुँचा था वो।इस बार जब बेटा दौड़कर आया तो बाप के हाथ ख़ाली थे।
"कैसी रही परीक्षा?" फिर से वही प्रश्न।
"अच्छी थी। सब लिखा। कुछ नहीं छोड़ा" बेटा एक ही बार में सब कह गया।पिता के हाथों में कुछ ढूँढ रहा था।
वो समझ गया।
"चलो बाज़ार घूमने चलते हैं"
बेटे ने अपने सबसे पक्के दोस्त को भी साथ कर लिया।
इस बाज़ार की जलेबियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। बेटे और उसके दोस्त को लेकर ऐसी ही एक जलेबियों की दुकान पर जाकर बैठ गया। मन भर जलेबी खाने के बाद पैसे देकर उठ गए। शाम होने लगी थी। अपने ठिकाने की ओर चल दिए थे तीनो। थोड़ी देर में बेटे के दोस्त का ठिकाना आ गया जहाँ वो ठहरा हुआ था। अब बस दोनो बाप बेटे थे। चलते चलते रेल्वे क्रॉसिंग आ गयी। उसे कुछ सूझा। दो दिनों से बेटा शाम को खेलने नहीं जा पाया था इस परीक्षा के चक्कर में।
"चलो एक खेल खेलते हैं।" उसने बेटे से कहा।
"यहाँ कौन सा खेल?"
"चलो देखते हैं किसका निशाना ज़्यादा अच्छा है।" उसने हँसकर बेटे को चुनौती दी।
"फिर तो हो जाए" बेटा किलक पड़ा था।
दोनो बाप बेटे पटरी पे बैठ गए और पटरी से ही एक एक पत्थर उठा लिया।
प्रतियोगिता शुरू हो गयी। बेटा क्रिकेट खेलता था। निशाना अच्छा था।जीतता गया और ख़ुश होता गया। अच्छे निशानची होने का गर्व उसके चेहरे पे ख़ुशी बनकर दिखायी दे रहा था। वो बेटे के चेहरे की ख़ुशी देखकर ख़ुश था।
अँधेरा होने आया था। दोनो बाप बेटे फिर ठिकाने की ओर चल दिए। ठिकाने पर पहुँच कर बेटा हाथ मुँह धोकर पढ़ने बैठ गया और वो फिर से बेटे की पढ़ायी सुनने।
"पापा, नींद आ रही है।" घंटे भर बाद बेटे ने बोला।
"कुछ खाओगे नहीं?"
"नहीं,जलेबी अभी तक पेट में ही है" बेटे ने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा।
उसकी हँसी छूट गयी। "ठीक है चलो सो जाते हैं।"
मच्छरदानी लगाकर दोनो बाप बेटे लेट गए।बेटा तुरंत ही नींद में चला गया था।वो सोचने लगा था।
पुरानी बातें याद आ रही थीं । उसे याद आ रहा था जब वो डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा देने गाँव से शहर जा रहा था और उसके पिता उसको गाँव के बस स्टैंड छोड़ने आए थे।गाँव का पहला लड़का था जो प्रवेश परीक्षा में बैठने जा रहा था।भीगी आँखों से विदा देते हुए उसके पिता के चेहरे पर वो उम्मीद उसे दिखी थी जो वो साकार नहीं कर पाया था। याद कर अपनी आँखें गीली हो गयी उसकी।आँखें पोंछ ली उसने। कल सुबह उठना है।फिर से बेटे को नाश्ता कराना है और तैयारी में उसकी मदद करनी है।जल्दी सोना होगा। उसने बेटे की तरफ़ देखा। नींद में बेटे के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी।दिल को ठंडक पहुँच गयी जैसे। उस मुस्कान को देखकर अब वो आराम से सो जाएगा।


उत्पत्ति

समुद्र भी क्षुब्ध था, ये गगन भी सुप्त था,   थी धरा भी शांत सी, और वायु भी तो मौन था. न तृण कोई था हिल रहा, न पत्तियों में सरसरी , जीव सारे थ...